Friday, October 10, 2008

चार सौ बीस - एपिसोड 65

मुसीबतचंद ने गाँव जाना फिलहाल कैंसिल कर दिया था. क्योंकि अब उसे उस समय तक शहर में रूकना था जब तक की उसका फोटो न मिल जाता. जिसे फोटोग्राफर ने दो दिन बाद देने को कहा था.
इस समय वह एक पेड़ तले बैठा हुआ था और उसे जोरों की भूक लग रही थी. उसने अपनी जेब टटोली और फिर उसकी ऑंखें चमक उठीं. क्योंकि जेब से दस रूपए निकल आए थे.
"चलो, इस समय का खर्च तो निकल आया. किंतु बाद के लिए क्या होगा. खैर देखा जाएगा, अभी तो चलकर भोजन कर लूँ." वह उठकर एक ढाबे की ओर चल पड़ा. उसे विश्वास था की पेट भरने के बाद उसे कोई ऐसी तरकीब सूझ जाएगी जिससे वह पैसों का जुगाड़ कर लेगा.

वह फिर बडबडाया, "यह कमबख्त हंसराज मुझे मुसीबत में छोड़कर न जाने कहाँ गाएब हो गया. मुझे तो कुछ गड़बड़ लगती है. पता नही उस आदमी से फोटोग्राफर किसका हुलिया बता रहा था. मुझे तो हंसराज का ही हुलिया मालूम पड़ा. और फिर उस आदमी ने आर्ट गैलरी वाला पोर्ट्रेट भी तो उसे दिखाया था. खैर मुझे क्या." उसने अपने सारे विचारों को एक झटका दिया क्योंकि अब ढाबा उसके सामने पहुँच गया था.
वह उसके अन्दर प्रविष्ट हो गया. अन्दर कुछ मेजें भरी हुई थीं, बाकी खाली थीं. उसने एक खाली मेज़ चुनी. कुछ देर बाद उसके सामने भोजन आ चुका था.
भोजन करने के बाद उसने वेटर को बिल लाने के लिए बुलाया.

"पन्द्रह रूपए." वेटर ने मशीनी अंदाज़ में बताया और मुसीबतचंद के हाथों के तोते उड़ गए. क्योंकि उसकी जेब में केवल दस रूपए मौजूद थे.
"कमाल है. हमारे गाँव में तो केवल तीन रूपए में पूरा पेट भर जाता था." वह बडबडाया.

"जी कुछ कहा तुमने?" वेटर ने आगे झुककर पूछा. उसी समय मुसीबतचंद को एक उपाए समझ में आ गया.

"कुछ नहीं. मैं तो तुम्हारे मस्तक की लकीरें देख रहा था. ज़रा अपना हाथ आगे बढ़ाना."
मुसीबतचंद कुछ क्षण उसका हाथ गौर से देखता रहा फिर मानो स्वयं से बोला, "केवल कुछ दिनों की बात है."

"क्या? मैं समझा नहीं." वेटर ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा.

1 comment:

seema gupta said...

केवल कुछ दिनों की बात है."

"क्या? मैं समझा नहीं." वेटर ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा.

'ha ha ha han thode dino bad to vo ameer hone wala hai na..'

regards