Friday, February 1, 2008

चार सौ बीस - एपिसोड 10

इन लोगों ने नकाबों से अपने चेहरे ढँक लिए थे. अब वे तेज़ी से सीढियों की तरफ़ जा रहे थे. कमरे का दरवाज़ा खुला और अंधेरे में लाला का साया दिखाई दिया. उसने शायद इन्हें देख लिया था. अतः वह भी इनकी दिशा में चला. किन्तु फिर वह मुंह के बल ज़मीन पर चला गया क्योंकि हंसाज की बंधी हुई डोरी में उसका पैर उलझ गया था.
इस प्रकार इन लोगों को भागने की मोहलत मिल गई. लाला को शायद अभी तक चीखने का ख्याल नही आया था जो इन लोगों के लिए और लाभदायक सिद्ध हुआ.
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जब ये लोग दीवार फांदकर दूर निकल आए टू इन्होंने चोर चोर की धीमी आवाजें सुनीं.
"अब चीख रहा है वह मरदूद." सोनिया ने दांत पीसकर कहा.
"शुक्र है की वह पहले नही चीखा. तुमने तो क़बाड़ा ही कर दिया था." गुस्से से घूरते हुए हंसराज बोला.
"मैं क्या करती. बौखलाहट में मुंह से निकल गया. अब आगे से ऐसी गलती नही होगी."
"गलती तो तब होगी जब मैं दोबारा तुम्हें अपने साथ ले जाऊंगा. और अब मुझसे ऐसी गलती कभी न होगी."
"ठीक है...ठीक है. अब पहले घर चलो. फिर इसके बारे में सोचा जाएगा. बाप रे मेरे हाथ पैर किस बुरी तरह कांप रहे हैं."
"चोरी करना हर एक के बस की बात नही होती. इसके लिए लोहे के चने चबाने वाले दांत चाहिए." हंसराज ने बताया.
फिर ये लोग लौट के बुद्धू घर को आये कहावत चरितार्थ करते हुए वापस अपने घरों को पहुँच गये.
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अगले दिन हंसराज की नींद तब टूटी जब किसी ने बाहर से दरवाज़ा खटखटाया.
"अब सुबह सुबह कौन आ मरा." वह बड़बड़ाया. उसने ऑंखें खोलकर दीवार घड़ी पर नज़र की जिसकी दोनों सूइयाँ बारह पर टिकी थीं. उसने उठकर एक अंगड़ाई ली और दरवाज़ा खोलने के लिये बढ़ा.
.........continued

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