फिर दरवाज़ा खोलने के बाद उसे यह देखने का मौका नही मिला कि खटखटाने वाला कौन था. क्योंकि वह जो भी था, दरवाज़ा खुलते ही उससे बुरी तरह लिपट गया था.
"अरे यार, तुम्हारा घर ढूँढ़ते ढूँढ़ते परेशान हो गया. अब तुम मिले हो." लिपटने वाला कह रहा था.
"लेकिन भाई साहब, आप कहाँ से आ रहे हैं?" हंसराज ने अचकचा कर पूछा.
"अरे तूने मुझे पहचाना नही. मैं तुम्हारा लंगोटिया यार हूँ."
फिर हंसराज ने बड़ी मुश्किल से उसे अपने से अलग किया और फिर उसके चेहरे का दर्शन किया.
"अरे मुसीबतचंद तुम! तुम यहाँ कैसे?" इसबार हंसराज ख़ुद बाहें फैलाकर उसकी तरफ़ बढ़ा.
"क्या बताऊँ यार, मैं तो यहाँ आकर भारी मुसीबत में फँस गया हूँ." मुसीबतचंद ने परेशान स्वर में कहा.
"मुसीबत में फँसना तो तुम्हारी पुरानी आदत है. इसी लिए तो तुम्हारा नाम ही मुसीबतचंद पड़ गया है." हंसराज बोला.
"क्या बताऊँ. मैं ने तो सोचा था कि जिस तरह गाँव में धंधा अच्छा चलता है उसी तरह यहाँ भी चलेगा, लेकिन किस्मत को क्या कहूं."
"धंधा? कैसा धंधा? तुम बैठ जाओ, फिर आराम से अपनी कहानी सुनाओ." हंसराज ने सोफे की ओर संकेत किया.
"बात यह है की आजकल मैं ज्योतिष का धंधा कर रहा हूँ. गाँव में तो लोग इसका खूब शौक रखते हैं. अपना हाथ दिखाकर भविष्य के बारे में जानने की जिज्ञासा तो सभी में होती है. सो मैं ने सोचा कि धंधा अच्छा चलेगा."
"तो तेरी कोई भविष्यवाणी सच भी हुई?"
"शुरुआत में तो बहुत सी सच निकलीं. जैसे मैं ने एक गाँव वाले का हाथ देखकर कहा कि उसके घर में एक बच्चा होगा जिसका रंग काला होगा. बाद में मुझे मालुम हुआ कि उसके घर में सभी कुंवारे थे."
"फिर तो जूते ही पड़े होंगे तेरे."
"आगे तो सुन. उसके तीसरे ही दिन उसकी भैंस ने बच्चा दिया." मुसीबतचंद ने बताया.
............continued
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