Wednesday, February 13, 2008

चार सौ बीस - एपिसोड 12

"वाह, ये तो कमाल हो गया."
"और सुनो. एक साहब का हाथ देखकर मैं ने बताया कि उसे ऊपरवाला कोई काम की वस्तु देने वाला है. मेरी यह भविष्यवाणी भी सच हो गई."
"उसे क्या मिला?"
"अगले दिन जब वह सो रहा था, उसके सर पर एक कद्दू टूटकर आ गिरा जिसकी बेल उसने घर में लगा रखी थी."
"लेकिन फिर तू शहर क्यों चला आया?"
"गाँव में मेरी कुछ भविष्यवाणियाँ ऐसे रूप में सच होकर सामने आईं कि गाँव वाले मेरे ख़िलाफ़ हो गये. तब विवश होकर मुझे गाँव छोड़ना पड़ा. वहाँ लोग मुझे मनहूस कहने लगे थे. क्योंकि मेरी अक्सर भविष्यवाणी से किसी न किसी का नुकसान हो गया."
"फिर यहाँ क्या गड़बड़ हो गई?"
"यहाँ आकर मैं ने एक कालेज के सामने डेरा जमाया. दुर्भाग्य से उसी समय वहाँ छात्रसंघ के चुनाव होने लगे. एक दिन एक नेता हाथ में हाकी लेकर अध्यक्ष बनने को आशीर्वाद मांगने आया. मैं ने आशीर्वाद दे दिया. अगले दिन दूसरा नेता आया. मैं ने उसे भी आशीर्वाद दे दिया. फिर दोनों को किसी प्रकार मालूम हो गया कि मैं ने दोनों को आशीर्वाद दिया है. सो तीसरे दिन दोनों एक साथ आ पहुंचे. फिर मेरी वो मरम्मत हुई की अब किसी कालेज की तरफ़ देखने की भी हिम्मत नही होती. उन्होंने मेरा सारा पैसा लूट लिया. अब तो मेरी जेब में दस पैसे भी नही हैं." मुसीबतचंद ने अपनी मुसीबत सुनाई.
"ओह!" हंसराज ने ठंडी साँस भरी,"तो अब तुम मुझ से मदद मांगने आये हो."
"हाँ यार, बस थोडी मदद कर दो ताकि मैं अपने गाँव पहुँच जाऊँ." मुसीबतचंद गिड़गिड़ा कर बोला.
"अरे यार, अब ऐसी भी क्या जल्दी है. थोड़े दिन यहीं मेरे पास रुको. फिर गाँव भी चले जाना."
"ठीक है. यही सही." मुसीबतचंद ने ठंडी साँस भरकर कहा."लेकिन मैं ज़्यादा दिन नही रुकूँगा."
"ओह, मैं ने तो मुरव्वत में कहा था. ये तो वास्तव में गले पड़ गया." हंसराज ने मन ही मन उसे गालियाँ दीं.
.....................continued

No comments: