"मैं मधुबन रेस्टोरेंट का मालिक हूँ. किंतु आप कौन महाशय हैं?" उसने गुददी सहलाते हुए कहा.
"मैं इस मकान का मालिक हूँ. जिसे तुम बेचने की बात कर रहे थे."
"क.. किंतु मैं ने सुना है कि यहाँ हंसराज रहता है."
"ठीक सुना है. वोह रहता है, लेकिन किराए पर. वो यहाँ किरायेदार है जबकि मैं मकान मालिक. और इस समय यहाँ उससे किराया वसूलने आया था. और अब तुम चलते फिरते नज़र आओ." उसने रेस्टोरेँट मालिक से कहा और वो बाहर जाने लगा. उसके पीछे मुसीबत्चंद ने भी बाहर जाना चाहा, किंतु मकान मालिक ने उसे रोक लिया.
"तुम कहाँ जा रहे हो? ये बताओ हंसराज कहाँ है? मुझे उससे तीन महीने का किराया वसूलना है.
"मुझे भी नही मालुम कि वो किधर गया है. मैं तो अभी अभी बाहर से आ रहा हूँ."मुसीबतचंद बोला.
"वो कमबख्त हमेशा कोई न कोई बहाना बनाकर किराया नही देता. अब मैं उसका सारा सामान उठाकर बाहर फिंकवा दूँगा." वो गुस्से में बड़बड़ा रहा था.
"लेकिन कौन सा सामान आप बाहर फिंकवाईयेगा? मकान तो पूरा खाली पड़ा है." मुसीबतचंद ने ध्यान दिलाया और मकान मालिक चौंक कर अपने घर का निरीक्षण करने लगा.
"आयें! सारा सामान कहाँ गया? कहीं ऐसा तो नही कि वो मेरा किराया लेकर चम्पत हो गया हो. तुम उसके दोस्त मालुम होते हो तुम्हें ज़रूर मालुम होगा कि वो कहाँ गया." मकान मालिक ने मुसीबतचंद की ओर घूम कर कहा.
"मैं आपसे बता चुका हूँ कि मैं बाहर से आ रहा हूँ. और वो इस बीच कब यहाँ से चला गया, मुझे कुछ पता नहीं." मुसीबतचंद ने समझाने के भाव में कहा.
"मैं कुछ नही जानता. कल शाम को मैं फिर यहाँ आऊंगा. तब तक हंसराज का पता मिल जाना चाहिए. वरना मैं तुम ही से तीन महीने का किराया पाँच हज़ार एक सौ रूपये वसूल लूंगा." कहते हुए मकान मालिक वहाँ से चला गया.
"मारे गये मुसीबतचंद. अब अच्छा यही है कि कल शाम से पहले तुम भी यहाँ से फूट लो वरना अच्छी हजामत बन जायेगी." वरना अच्छी हजामत बन जायेगी." उसने अपनी पोटली नीचे रखी और अपना हुलिया ठीक करने लगा.
तभी पीछे से किसी ने आकर उसे जकड लिया. "अरे भाई, तुम बहुत जालिम हो. तुम ने मेरी सोनिया को मुझ से छुड़ा दिया." आने वाले कि आवाज़ शराब में डूबी थी.
........continued
उपन्यास - सूरैन का हीरो और यूनिवर्स का किंग
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उपन्यास - सूरैन का हीरो और यूनिवर्स का किंग उस लंबी कहानी की अंतिम कड़ी है
जिसके पूर्व हिस्से आप उपन्यासों - सूरैन का हीरो और
शादी का कीड़ा, सूरैन का हीरो...
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