चार सौ बीस - एपिसोड ३
टी टी ध्यान से उनकी और देख रहा था."क्या बात है मिस्टर. जल्दी टिकट निकालो, मुझे देर हो रही है."
"म म मैं ने टिकट तो ख़रीदा था, किन्तु वह बटुआ नही मिल रहा है जिसमें मैं ने टिकट रखा था." उनहोंने घबराकर कहा.
"आपके कहने का ये मतलब है कि आपके पास टिकट नही है."
"टी टी साहब, किसी ने मेरा बटुआ भी उड़ा लिया. उसमें मेरे एक हज़ार रुपए थे."
"यह सब आप बाद में बताइयेगा. " टी टी ने संकेत किया और दो सिपाहियों ने उन्हें अपने घेरे में ले लिया. ये घटना देखकर आस पास खड़े लोग सहमकर अपनी अपनी जेबें टटोलने लगे थे. मानो उनके टिकट भी गायब हो गए हों.
पाँच छह अन्य लोगों के टिकट चेक करने के बाद टी टी जब सातवें व्यक्ति के पास पहुँचा तो उसके चेहरे पर भी हवाइयां उड़ने लगीं. "क्या बात है, तुमने अभी तक टिकट नही निकाला?" टी टी ने गौर से उसका चेहरा देखते हुए कहा.
"म मेरी भी जेब कट गई है." उस व्यक्ति ने पसीना पोंछते हुए कहा.
"बहुत खूब. लगता है तुम भी उसके साथी मालुम होते हो." टी टी ने संकेत किया और सिपाहियों न उस भी अपने घेरे में ले लिया.जल्दी ही एक अन्य व्यक्ति भी इन दोनों के पास पहुँचा दिया गया क्योंकि उस की भी जेब कट गई थी.
"पहले तो इक्का दुक्का लोग बिना टिकट यात्रा करते थे, अब टोली बनाकर करते हैं. जेल में पहुंचकर दिमाग ठिकाने आ जाएगा. टी टी ने उन्हें घूरते हुए कहा.
...................
इधर उनकी जेबें काटने वाला अर्थात सलेटी पैन्ट कमीज़ वाला व्यक्ति अब उस सीट की ओर बढ़ रहा था जिस पर थोड़ा बैठने का स्थान हो गया था. वह वहाँ जाकर बैठ गया और सामने बैठे महाशय को घूर घूर कर देखने लगा जिनके भरी भरकम शरीर पर छोटी सी गाँधी टोपी विचित्र प्रकार की लग रही थी. वह महाशय इनको अपनी और घूरते पाकर स्वयं भी बदले में इन्हें घूरने लगे.
कुछ देर एक दूसरे को इसी प्रकार आंखें गडाकर देखने के बाद उनके बीच की मौनता उस समय भंग हुई जब वहाँ आकर बैठे व्यक्ति ने उन महाशय को हाथ जोड़कर नमस्कार किया.
"नमस्कार!" उन महाशय ने उसी प्रकार घूरते हुए उत्तर दिया.
"मैं ने लगता है आपको कहीं देखा है. " इस व्यक्ति ने कहा.
"मुझे भी यही लगता है." उत्तर में वह महाशय बोले.
"मुझे विश्वास है की आप मुम्बई में रहते हैं और वहाँ फिल्मों में काम करते हैं. हो सकता है मैं ने आपको किसी फ़िल्म में देखा हो."
"अरे मेरा ऐसा भाग्य कहाँ. मैं तो कोल्काटा में रहता हूँ." वह महाशय कुछ फूल कर बोले.
"ओ हो अब यद् आया कि मैंने आपको कब देखा था. आपने वहाँ किसी जलसे की अध्यक्षता की थी और उस जलसे में मैं भी मौजूद था."
वह महाशय अपने मस्तिष्क पर ज़ोर लगाकर उस जलसे के बारे में सोचने लगे जिसकी अध्यक्षता उनहोंने कभी नही की थी. फिर कुछ देर बाद बोले, "हो सकता है आपने मुझे किसी ऐसी जगह देखा हो. वैसे मैं तो बिजनेस करता हूँ.
"ओह, किस वस्तु का?"
"तेल का. मेरी कम्पनी सरसों, नारिअल, तिल इत्यादी सभी तेलों की सप्लाई करती है."
"मेरा विचार है की आप आर्डर लेने गए थे और इस समय वापस घर जा रहे है."
"इस समय तो आर्डर लेने जा रहा हूँ."
फिर वहाँ कुछ देर मौनता छाई रही. उसके बाद वही व्यक्ति दुबारा बोला, "आपका शुभ नाम तो मैं पूछना ही भूल गया."
"रेवती रमन. और आपका?"
"मुझे हंसराज कहते हैं."
उसके बाद फिर कुछ देर के लिए सन्नाटा छा गया. फिर हंसराज अपना थैला खोलने लगा. अब उसके हाथ में एक डिब्बा दिखाई पड़ रहा था. जिसमें शायद खाने पीने का सामान था.
"आइये, रेवती जी खाना खा लिया जाए." उसने डिब्बा खोलते हुए कहा.
"धन्यवाद. मैं यात्रा के समय भोजन नही करता."रेवती रमन ने कहा और हंसराज अकेले ही भोजन करने लगा.भोजन करने के बाद उसने सिगरेट केस निकाला और एक सिगरेट अपने होंटों से लगा ली. फिर उसने सिरेट केस रेवती रमन की और बढ़ा दिया. उसने भी एक सिगरेट निकाल ली.
"भोजन करने के पश्चात् मैं सिगरेट पीना पसंद करता हूँ." हंसराज ने सिगरेट सुलगाते हुए कहा.
"और बढ़िया क्वालिटी की ही पसंद करते हैं." एक काश लेने के पश्चात् रेवती रमन ने कहा.
उपन्यास - सूरैन का हीरो और यूनिवर्स का किंग
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उपन्यास - सूरैन का हीरो और यूनिवर्स का किंग उस लंबी कहानी की अंतिम कड़ी है
जिसके पूर्व हिस्से आप उपन्यासों - सूरैन का हीरो और
शादी का कीड़ा, सूरैन का हीरो...
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