Tuesday, November 13, 2007

Hindi Novel By Zeashan Zaidi

चार सौ बीस - एपिसोड - २
एक
सज्जन अपना एक पैर गाड़ी के फर्श पर पहुँचा चुके थे जबकि दूसरा पैर अभी हवा में ही था जिसे वे धीरे धीरे नीचे ला रहे थे. अचानक एक बुढ़िया चीख उठी, "बबुआ, तनी देख के नीचे पैर रखियो, टोकरी में मुर्गी बंद है कहीं कुचल न दिहो."
"आदमियों के लिए यहाँ जगह नही है और माताजी मुर्गी लिए चल रही हैं. अब मैं दूसरा पैर क्या हवा में लटकाए रहूँ." उन सज्जन ने झल्लाते हुए कहा.
"दूसरा पैर आप चाहे जहाँ लट्काईये किन्तु पहला पैर मेरे पैर पर से हटा लीजिये जिसे आप गाड़ी का फर्श समझकर बड़े आराम से रखे हुए हैं." एक अन्य महाशय बहुत देर बर्दाश्त करने के बाद बोल उठे.
अब इन सज्जन के पास इसके अलावा और कोई चारा नही था के वो हाथ धोने के सिंक को सीट की तरह प्रयोग कर लेते. और यही उन्होंने किया.
एक महाशय अपने को काफी भाग्यशाली समझ रहे थे. क्योंकि उन्हें एक सीट पर टिकने की जगह मिल गई थी. अभी वे इसकी खुशी मना ही रहे थे कि ऊपर से बारिश होने लगी. उन्होंने ऊपर सर उठाकर देखा तो ऊपर की बर्थ के एक सज्जन बत्तीसी दिखाते हुए बोल उठे, "माफ़ कीजिये, भीड़ से घबराकर मुन्ने के थोड़ा शू शू निकल गया है."
गाड़ी ने सीटी दी और धीरे धीरे रेंगने लगी. लोग अब जल्दी जल्दी डंडे पकड़कर लटकने लगे थे.
"आप लोग रास्ता दीजिये, मुझे अन्दर जाना है." जनरल डिब्बे में चढ़ते हुए एक व्यक्ति ने कहा.
"आप किसी और डिब्बे में चढ़ जाईए. यहाँ पाँव रखने की भी जगह नही है." सींक पर बैठे महाशय बोले.
"मुझे इसी डिब्बे में जाना आवश्यक है. मैं सादी वर्दी वाला हूँ. और एक अपराधी का पीछा कर रहा हूँ. जो इसी डिब्बे में घुसा है. उस व्यक्ति ने अन्दर घुसते हुए कहा. सादी वर्दी का सुनकर लोगों ने उसे तुरंत रास्ता दे दिया.
आयु से तीस के आसपास लगने वाला वह व्यक्ति अब लोगों की भीड़ चीरता हुआ आगे बढ़ रहा था. सलेटी कमीज़ और इसी रंग की पैंट में उसका व्यक्तित्व शानदार लग रहा था. चेहरा क्लीन शेव था. बोगी के दूसरे छोर पर पहुंचकर वह रूक गया. फ़िर एक कोने में खड़े होकर वह पैंट की जेबें टटोलने लगा.गाड़ी अब अपनी पूरी गति से रास्ता तय कर रही थी. स्टेशन अब काफी पीछे छूट गया था. लोग ठंडी हवा खाकर ऊंघने लगे थे. अतः किसी ने उस समय उस व्यक्ति की ओर विशेष ध्यान नही दिया जब उसका हाथ जेब से बाहर आया. उसके हाथ में एक साथ तीन पर्स दबे हुए थे. उसने पर्स खोलकर देखे, उनमें से दो नोटों से भरे हुए थे किन्तु तीसरा लगभग खाली था. आश्चर्य की बात ये थी की तीनों में ही एक एक गाड़ी का टिकट रखा हुआ था. उसने पर्स में से रकम निकाल कर अपनी जेब में रखी और साथ ही एक टिकट भी. फिर खाली पर्स धीरे से गाड़ी से नीचे गिरा दिए. वहां मौजूद लोगों ने इसपर भी कोई ध्यान नही दिया. अब वह व्यक्ति भी दीवार से टेक लगाकर ऊंघने लगा था
............
उन लोगों का ऊँघना उस समय छूटा जब गाड़ी एक छोटे से प्लेटफार्म पर पहुंचकर रूक गई और रेलवे पुलिस के कुछ सिपाहियों सहित एक टी टी डिब्बे में चढा.
"आप लोग अपने टिकट निकालिए." उसने कहा और लोग जल्दी जल्दी अपनी जेबें टटोलने लगे.
टी टी लोगों के टिकट चेक करते हुए आगे बढ़ने लगा. इस व्यक्ति ने भी टिकट निकाल कर टीटी को को दिखाया. अब टी टी डिब्बे के दूसरे छोर पर जा रहा था.
"ऐ मिस्टर अपना टिकट दिखाइए." एक सज्जन का कन्धा पकड़कर उसने हिलाया जो दीवार से टेक लगाकर ऊंघ रहे थे.
"सोने दो न डार्लिंग, तुम रोज़ सुबह सुबह उठा देती हो." वह सज्जन बडबडाये. शायेद वे खड़े खड़े ही अपने घर के बिस्तर पर पहुँच गए थे. लोग उनकी बड़बडाहट पर हंसने लगे, जबकि टी टी का चेहरा क्रोध के कारण लाल हो गया.
"डार्लिंग के बच्चे, टिकट निकालो. पता नही कैसे कैसे लोगों से पाला पड़ता है." टी टी ने झुंझलाते हुए एक चपत जमाई और वे सज्जन होश में आ गए.टी टी को देखकर उनहोंने टिकट निकालने के लिए अपनी जेब में हाथ डाला और अगले ही पल हड़बड़ाकर सीधे हो गए. क्योंकि वह जेब खाली थी. फिर उनहोंने अपनी सारी जेबें एक एक कर के देखना आरंभ कर दीं.
( .....शेष अगले सप्ताह )

1 comment:

Arvind Mishra said...

Very interesting and amusing dialogues !Carry on please !