Thursday, November 8, 2007

Hindi Novel

चार सौ बीस - एपिसोड १ ( जीशान जैदी )
धीरे धीरे रेंगती ट्रेन एक हल्का झटका खाकर प्लेटफ़ार्म पर रूक गई. किन्तु इससे पहले ही ट्रेन के दरवाजों के डंडे ऊपर चढ़ने वाले यात्रियों की हथेलिओं द्वारा छुप चुके थे.
इस बात की सत्यता सिद्ध करते हुए कि भारत की अस्सी प्रतिशत आबादी शायद ट्रेनों की यात्रा करती रहती है, भीड़ का एक रेला आगे बढ़ा और वहां पानीपत के युद्ध का द्रश्य उत्पन्न हो गया. जिसमें एक ओर ट्रेन से उतरने वाले थे और दूसरी ओर ट्रेन में चढ़ने वाले. हर ओर से हाय हाय, बचाओ, चढ़ो , उतरो की आवाजें सुनाई पड़ रही थीं और एक कान फाड़ देने वाला शोर था.
एक सज्जन बिना ये देखे की सामने अन्दर जाने के लिए जो रास्ता है वह गाड़ी का दरवाजा है या किसी की दोनों टांगों के बीच का रिक्त स्थान, जब अन्दर प्रविष्ट हुए तो उन्हें अपने ऊपर कुछ बोझ सा प्रतीत हुआ. उन्होंने सर घुमाकर देखा तो एक नाटे कद के सज्जन उनके कंधे पर बैठे हुए नीचे उतरने के लिए हाथ पाँव मार रहे थे.
इस शोर में कभी कभी कुछ आवाजें साफ सुनाई पड़ जाती थीं.
"अरे रामदुलारी, तुम ऊपर चढ़ जाओ, फ़िर मैं खिड़की से मुन्नी को अन्दर फ़ेंक दूँगा और गठरी को तुम अपनी गोदी में ले लियो. "
"अरे ओ प्यारेलाल, तोहार दरसन तो बहुत दिन बाद भये , कहाँ जात थेव?"
"राम राम छंगृ जी, गाओं जात रहे. बुवाई का समय है न."
"तो चलौ फिर हमरे साथ. लैटरीन में जगह छिकाय लिए हैं. बहुत आराम से यात्रा गुज़रिहै."
एक सज्जन जब अपना होलडाल खिड़की के रास्ते अन्दर फेंककर जब पीछे हटे तो उन्होंने देखा की उनकी सफ़ेद पैंट पर लाल धब्बा पड़ गया है. सामने देखा तो जहाँ पर 'भारतीय रेल आपकी सेवा में हर समय तत्पर है' लिखा था, वहाँ किसी ने पान की पीक थूक दी थी.
"क्या मुसीबत है. ये लोग थोड़ी प्रतीक्षा करके लाइन बना लें तो सब आराम से गाड़ी में चढ़ सकते हैं." रिज़र्वेशन की बोगी में चढ़ते हुए सफ़ेद कुरता पाजामा पहने हुए एक सज्जन ने जनरल बोगी की ओर देखते हुए कहा. उनके बोगी में चढ़ जाने के बाद गठरी तथा झोला लटकाए हुए पाँच छह और व्यक्तियों ने उस बोगी में चढ़ने का प्रयास किया.
"तुम लोग कहाँ जा रहे हो! यह रिज़र्वेशन वाली बोगी है." गेट के पास खड़े हुए एक सिपाही ने डपटा.
"हम लोग भी रिज़र्वेशन वाले हैं भैया. हमरा बिटवा रिज़र्वेशन वाली सर्विस करत है. " आगे वाले व्यक्ति ने यह कहते हुए ऊपर चढ्ना चाहा.
"सर्विस वाला रिज़र्वेशन दूसरा है, यहाँ पर वो नहीं चलेगा." सिपाही के कानों पर जूं नहीं रेंगी. उन्हें निराश होकर आगे बढ़ जाना पड़ा.
"चाय चाय!" चाय वाले प्लेटफोर्म पर घूमने लगे थे.
"ऐ चायवाले, एक चाय देना." एक पैर प्लेटफोर्म पर और दूसरा पायदान पर टिकाते हुए एक महाशय चाय लेने के लिए अपनी जेब में हाथ डालने लगे.
"भाई साहब ! आप मेरी जेब में क्यों हाथ डाल रहे हैं?" पास खड़े व्यक्ति ने उन्हें टोका.
"माफ़ कीजियेगा! इस भीड़ में पता ही नहीं चल रहा है की जेब मेरी है या आपकी."
( .....शेष अगले सप्ताह )

2 comments:

Arvind Mishra said...

मजेदार है ,आपमें हास्य व्यंग की भी अच्छी समझ है ...मेरी शुभकामनाएं !

arun prakash said...

kya baat hai :enjoyed